Mirza Ghalib Qaumi Wa Aalmi Tanazur Mein. and
Mirza Ghalib collection of poetry, ghazal, Nazm in Urdu, Hindi & English.
अच्छी शायरी का मुआमला ज़रा अलग क़िस्म का होता है, इसमें लफ़्ज़ों के परे एक ऐसी दुनिया होती है कि अगर आप उस तक पहुंचने से असमर्थ रहे तो शायरी के असल आनंद से वंचित रहेंगे। शायरी में इस्तेमाल हुए शब्द अर्थ के विस्तृत संसार तक पहुंचने का एक छोटा सा माध्यम मात्र होते हैं, आगे का सफ़र पाठक को ख़ुद तय करना होता है। शायरों ने शब्दों के प्रयोग के कई ऐसे ढंग आविष्कार किए हैं जिनके ज़रिये कम से कम शब्दों का प्रयोग करके अर्थ के विशाल संसार तक पहुंचा जा सकता है। उन्हीं में से एक तरीक़ा तल्मीह कहलाता है।शायरी की परिभाषा में तल्मीह उस शिल्प को कहते हैं जिसमें शायर एक या दो शब्दों में किसी ऐसे ऐतिहासिक या पौराणिक घटना, क़िस्से या पात्र की तरफ़ इशारा करता है जिसको पूरी तरह जाने और समझे बग़ैर शेर को समझना और उससे आनंदित होना कठिन हो। जैसे मिर्ज़ा ग़ालिब का ये शेर,इस शेर में इब्न के इलावा कोई ऐसा शब्द नहीं है जो मुश्किल हो। इब्न अरबी शब्द है जिसका अर्थ बेटे के हैं। लेकिन ये जान लेने के बाद भी शेर को समझना तब तक असम्भव है जब तक शेर में मौजूद इब्न-ए-मरियम की तल्मीह को न समझ लिया जाये।इब्न-ए-मरियम इसराईल वंश के आख़िरी पैग़ंबर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम का कुलनाम है। ईसा को उनकी माता मरियम की तरफ़ संकेत किया जाता है। कथनानुसार ख़ुदा ने उन्हें संतानोत्पत्ति के प्राकृतिक नियम के विरुद्ध अपने प्रभुत्व को प्रकट करने के लिए बिना बाप के पैदा किया था।ख़ुदा ने ईसा को कुछ असाधारण चमत्कारों से भी नवाज़ा था, उन चमत्कारों में से एक चमत्कार ये था कि ईसा ‘क़ुम बि-इज़्निल्लाह’ (अल्लाह के हुक्म से खड़ा हो) कह कर मुर्दों को ज़िंदा कर दिया करते थे और फूंक मार कर पैदाइशी तौर पर नाबीना लोगों को आँख की रोशनी दे देते थे, कोढ़ के मर्ज़ में मुब्तला लोगों को अच्छा कर देते थे। ईसा को उनकी इन्हीं विशेषताओं के लिए मसीह या मसीहा के नाम से भी जाना जाता है। मसीहा यानी वो शख़्स जो लोगों की बीमारियों और उनके दुखों का ईलाज करसके।ग़ालिब ने अपने इस शेर में इब्न-ए-मरियम की तल्मीह इस्तिमाल करके इसी घटना की तरफ़ इशारा किया है।ग़ालिब कहना चाहते हैं कि इब्न-ए-मरियम जो चाहे हुआ करे मुझे इससे क्या मतलब, बात तो तब है जब वो मेरे दुखों का ईलाज करसके।ग़ालिब ने ईसा से सम्बन्धित उल्लेखित घटना को कई जगहों पर तल्मीही अंदाज़ में इस्तिमाल किया है। ग़ालिब का एक और शेर है,इस शेर में दम-ए-ईसी अर्थात ईसा की फूंक का ज़िक्र है। ग़ालिब कहते हैं कि मैं इतना कमज़ोर और बीमार हो गया कि जब ईसा ने मुझे ठीक करने के लिए अपने होंट खोले तो मैं उसकी भी ताब न ला सका और उनके होंटों से निकलने वाली हल्की सी हवा के सदमे से ही मर गया। इस तरह ईसा जो मुझे अच्छा करने के लिए आए थे, मौत का कारण बने।साग़र-ए-जम की तल्मीह ईरान के मशहूर बादशाह जमशेद से मुताल्लिक़ है। मशहूर है कि फ़ारस के हकीमों ने बादशाह के लिए एक साग़र यानी शराब का प्याला तैयार किया था जिसके अंदर कुछ रेखाएं खिंची हुई थीं। ये सात रेखाएं थीं, उनके नाम ये थे। ख़त-ए-जौर, ख़त-ए- बग़दाद, ख़त-ए-बस्रा, ख़त-ए-अरज़क, ख़त-ए-शुक्रिया, ख़त-ए-अश्क, ख़त-ए-साग़र।पहले ख़त तक अगर शराब भरी हुई होती थी तो इसका मतलब था कि उसको बादशाह के इलावा कोई और नहीं पी सकता। दूसरे ख़त तक शराब भर कर सिर्फ़ बादशाह के ख़ानदान के लोग पी सकते थे। उसके बाद सलतनत के सदस्यों और अमीरों का नंबर आता था। ग़ालिब ने इस तल्मीह को अपने मशहूर शेर में इस तरह इस्तिमाल किया है,जाम-ए-सिफ़ाल, यानी मिट्टी का प्याला। ग़ालिब कहते हैं कि साग़र-ए-जम से अपना मिट्टी का प्याला ही अच्छा है, अगर टूट भी जाये तो कोई ग़म नहीं, बाज़ार से दूसरा प्याला ले आएँगे। साग़र-ए-जम एक नायाब प्याला है, इसकी तरह का कोई और प्याला दुनिया में उपलब्ध नहीं।लक़ा की दाढ़ी और अम्र की ज़ंबील, ये दोनों तल्मीहात दास्तान-ए-अमीर हमज़ा से हैं। लक़ा दास्तान अमीर हमज़ा का केन्द्रीय पात्र है और एक ऐसा बादशाह है जो अपने ख़ुदा होने का दावा करता है। अमीर हमज़ा की उससे सैकड़ों जंगें हुईं।दास्तान के मुताबिक़ लक़ा का क़द बहुत ऊँचा था और उसकी दाढ़ी कई गज़ लंबी और चौड़ी थी। ये दाढ़ी हर वक़्त जवाहरात से सुसज्जित रहती और उसके हर हर बाल में हीरे-जवाहरात पिरोए होते।ज़ंबील का अर्थ टोकरी, झोली और कासे का है। अम्र अमीर हमज़ा की फ़ौज में एक अय्यार है। उसे बुज़ुर्गों से बहुत से अजाइबात मिले हैं। उन्हीं में से एक उसकी ज़ंबील भी है। इस ज़ंबील की ख़ूबी ये है कि हर चीज़ इसमें समा जाती है और ये कभी भरती नहीं । इस ज़ंबील में एक दुनिया आबाद थी, जिसमें जिन्न,शैतान और जादूगर क़ैद थे। ये सब अम्र के क़ैदी थे और उनसे इसी ज़ंबील में सज़ा के तौर पर खेती-बाड़ी कराई जाती थी।इन दोनों तल्मीहों को ग़ालिब ने अपने एक शेर में इस तरह इस्तिमाल किया है,ग़ालिब कहते हैं मेरा वो काग़ज़ जिस पर मैंने शेर लिखे हैं अर्थ के मोतियों से इसी तरह भरा हुआ है जैसे लक़ा की दाढ़ी मोतियों से भरी होती थी और दुनिया जहान के ग़म मेरे सीने में वैसे ही समायए हैं जैसे उम्र की ज़ंबील, जिसमें हर चीज़ समा जाती थी और वे कभी भरती ही नहीं थी। जू-ए-शीर फ़ारसी तरकीब है, जिसमें जू का अर्थ नहर है, और शीर दूध को कहते हैं। इस दूध की नहर की कहानी बहुत दिलचस्प है। कहा जाता है कि फ़र्हाद, ख़ुसरो परवेज़ की पतनी शीरीं पर आशिक़ हो गया था। उसका ये इश्क़ बढ़ता ही चला गया और सारे शहर में उसके चर्चे आम होगए। फ़र्हाद से पीछा छुड़ाने के लिए ख़ुसरो ने उससे कहा, अगर तुम पहाड़ काट कर एक नहर निकाल सको जिसके ज़रिये महल तक दूध लाया जा सके तो शीरीं तुम्हारे हवाले कर दी जाएगी। फ़र्हाद शीरीं को पाने के लिए इस असम्भव काम में जुट गया और बरसों की मेहनत के बाद एक विशाल पहाड़ काट कर नहर निकाल दी।ग़ालिब कहते हैं कि जुदाई की रातों की मुसीबतें न पूछो, महबूब के वियोग में रात काटना उतना ही मुश्किल है जितना फ़र्हाद के लिए पहाड़ काट कर जू-ए-शीर यानी दूध की नहर निकालना था।कोह-कन, दो शब्दों से मिलकर बना है कोह और कन, कोह का अर्थ पहाड़ है और कन काटने वाला, ये फ़र्हाद का उपनाम है। फ़र्हाद ने शीरीं को पाने के लिए पहाड़ काट कर दूध की नहर निकाली थी।पहाड़ काटने के बाद जब शीरीं को पाने की बारी आई तो ख़ुसरौ, शीरीं का शौहर अपने वादे से मुकर गया, उसे शीरीं की जुदाई किसी तरह गवारा न थी। उसने चाल चली और अपने एक मुसाहिब को बूढ़ी औरत के भेस में फ़र्हाद के पास भेजा और ये ख़बर पहुंचाई की शीरीं मर गई है।फ़र्हाद इस झूठी ख़बर का सदमा बर्दाश्त न करसका। तीन बार शीरीं का नाम लिया और जिस तेशे (औज़ार) से पहाड़ काटा था वही औज़ार अपने सर पर मार लिया और जान दे दी।पीरज़न की तल्मीह उस बूढ़ी औरत के लिए इस्तिमाल की गई है जिसने फ़र्हाद को शीरीं के मरने की झूटी ख़बर दी थी।इस शेर में ग़ालिब ने एक ही घटना से सम्बंधित तीन तल्मीहें इस्तिमाल की हैं। ज़ुलेख़ा जो बादशाह-ए-मिस्र की बीवी थी और निहायत हसीन थी। माह-ए-कनआँ हज़रत यूसुफ़ का उपनाम है। यूसुफ़ कनआँ में रहते थे और बहुत ही सुंदर इन्सान थे, इसी सम्बन्ध से उन्हें माह-ए-कनआँ यानी कनआं का चांद कहा गया। ज़नान-ए-मिस्र, मिस्र की वो औरतें जो यूसुफ़ से प्यार करने पर ज़ुलेख़ा का मज़ाक़ उड़ाती थीं।वाक़िया ये था कि ज़नान-ए-मिस्र ज़ुलेख़ा पर ताने कसती थीं कि तुम एक ग़ुलाम पर आशिक़ हो गई हो। मजबूर हो कर ज़ुलेख़ा ने बहुत सी औरतों को जमा किया और सबके हाथ में एक एक सेब और छुरी दे दी और कहा कि जब यूसुफ़ सामने आए तो सेब काटना। यूसुफ़ जैसे ही कमरे में दाख़िल हुए तो औरतें सेब काटने लगीं। लेकिन वो यूसुफ़ की सुंदरता में इतनी तल्लीन हो गईं और उनके हुस्न के फ़रेब में इस क़दर आगईं कि सेब के बजाय अपनी अपनी उंगलियां काट लीं। औरतों की ये बेख़ुदी देखकर ज़ुलेख़ा ख़ुश हुई। इसी घटना से ग़ालिब शेर बनाते हैं।आम क़ायदा ये है कि आशिक़ अपने रक़ीबों (प्रतिद्वंदियों) से जलते हैं और परेशान होते हैं लेकिन यहां अजब मुआमला है कि ज़ुलेख़ा अपने रक़ीबों से ख़ुश है कि वो भी यूसुफ़ पर उसी तरह मुग्ध हो गई हैं।ये शेर दो तल्मीहात पर आधारित है। औरंग-ए-सुलेमां और एजाज़-ए-मसीहा । एजाज़-ए-मसीहा के बारे में और उपर तफ़सील से बताया जाचुका है कि उन्हें ख़ुदा की तरफ़ से कुछ ख़ास चमत्कार दिए गए थे। वो मुर्दों को ज़िंदा कर देते थे, अंधे लोगों को आँखों की रोशनी दे देते थे वग़ैरा। औरंग-ए-सुलेमां का अर्थ सुलेमान का तख़्त है। सुलेमान ख़ुदा के पैग़म्बर थे, उनके पास एक ऐसा तख़्त था जो हवा में उड़ा करता था। वो उस तख़्त के ज़रिये जहां चाहते चले जाते। ग़ालिब इस शेर में कहते हैं मैं तख़्त-ए- सुलेमां को एक खेल समझता हूँ और एजाज़-ए-मसीहा मेरे लिए एक मामूली सी बात है। ये शेर ग़ालिब की ख़ुदी और दुनिया की तमाम-तर शान-ओ-शौकत को तुच्छ समझने का बयान है।Enter your email address to follow this blog and receive notification of new posts.